Thursday, December 15, 2011

कलम की आश...

कलम ने लिखना चाहा तो मुझसे चुपके से बोली की मैं क्या लिखू
मैने कहा तू चाहती है क्या लिखना कलम ने मुस्कुरा कर कहा
मैने आज तक जो चाहा है उसे लिखने वाले ने लिखने कहा दिया है...
सब ने अपनी तन्हाई और अपने गम लिखे है
किसी ने मुझे अपने गम लिखने कहा दिए है...
मैने अपने को स्याही मे डूबा के किसी के गम को
जैसा लिखा है क्या मेरे भी गम और तन्हाई को
लिखने वाले तू अपने को स्याही मे डुबो के लिख सकता है
लेकिन कलम को कोई उत्तर नही मिला
और आज भी कलाम यही सवाल करती है
और फिर दूसरे के गम और तन्हाई को लिखना शुरू कर देती है...

Tuesday, February 1, 2011

मैने जो सीखा है...

अपने गम को छुपा के रखना सीखो,
लोग गम का मज़ाक बना डालेंगे.
जिंदगी मे खुद के पैरो पे लड़ना सीखो,
लोग विकलांग बना डालेंगे.
अंधेर मे खुद रास्ते खोजना सीखो,
लोग जलते हुए दीपक को भी बुझा डालेंगे
यहा बहुत ही कम है जो गम मे साथ देना,
रास्ते मे अपने पैरो का सहारा देना,
अंधेरे मे खुद को जला के रास्ता दिखाना सीखे है.

Sunday, January 23, 2011

जिंदगी पत्थर बन गयी...

जिंदगी मे इतनी ठोकरे है लगी की
जिंदगी ना बदली पर पत्थर बदल गया.
जब ठोकरे लगती थी तब दर्द का ऐहसास होता था
अब ना दर्द होता है ना उसका ऐहसास
शायद जिंदगी पत्थर बन गयी और पत्थर जिंदगी
अब शायद इस पत्थर को कोई मूर्तिकार
काट कर एक नया रूप दे
और ये मूर्ति ही शायद ही कुछ कर जाए
जो ठोकर लगने के पहले एक जिंदगी नही कर सकी...

Saturday, December 18, 2010

समाज के ठेकेदार...

ऐ समाज के ठेकेदारो!!!
इंसानियत अभी जिंदा है
उसपे अभी कफ़न मत डालो
डालना है तो तेल दीपक मे डालो
तुम्हारे कालेपन से जो अंधेरा फैला है
वो शायद मिट जाए...
जलते हुए घरो को और मत जलाओ
जलाना ही है तो बुझे हुए चूल्हो को जलाओ
जहा से आज भी आती कराहती हुई आवाज़
उन घरो पे तुम्हारी नज़रे क्यो नही पहुँची
लेकिन दस्तूर ही कुछ ऐसा है की
तुम्हारी नज़रे ठहरती ही वाहा है
जहा सब कुछ बसा है...
क्योंकि बसाने से ज़्यादा तुम्हे उजाड़ने मे मज़ा आता है...

Sunday, November 28, 2010

सोचो क्या होगा...

अगर साथ दीपक को तूफ़ानो का मिल जाए
अगर साथ खुद को गैरो का मिल जाए
अहसास ना होगा अंधेरे और पराएपन का
फिर रोशनी की रोशनी बुझ जाएगी
अपनो के ना होने का ऐहसास ना रह जाएगा
माँ की ममता का ऐहसास कहा होगा
फिर दीपक लड़ने की ललक खो देगा
हम अपनो को पाने की ज़िद छोड़ देंगे
फिर किस को पाने के लिए हम लड़ेंगे
किस अंधेरे को ख़तम करने के लिए दीप जलाएँगे
और ये कलम किस की तन्हाई और अंधेरे को को सादे कागज पे लिखेगी
सोचो हम कितने खाली हो जाएँगे...

Wednesday, November 24, 2010

गाँव की गलियाँ...

बचपन की यादों को समेटे हुए
मैं शहर की सड़को पर निकला
तब अचानक गाँव की गलिया याद आयी
जिन गलियों मे गाँव का प्यार बहता है...
सुना था शहर की गलिया गाँव की गलियों से अच्छी है
लेकिन मुझे इन गलियों मे केवल काँच की हवेली, ईटो के महल ही दिखे...
ना बुज़ुर्गो का प्यार था ना माँ का दुलार
फिर भी बनावटी सुंदरता को देखकर हम क्यों चले आये...
अब जाके ऐहसास हुआ की गाँव की मिट्टी के घराऊंदे ही अच्छे थे...
शहर की भीड़ से लड़ने से अच्छा गाँव के हालातों से लड़ना अच्छा है...

Sunday, November 21, 2010

आधूरी दोस्ती...

दोस्ती चीज़ क्या है समझ मे नही आता
कभी तन्हाई दूर करने के लिए दोस्ती करते थे
आज दोस्ती कर के तन्हाई मे रहते है
सोचते थे कभी की दोस्ती करके
टूटे हुए सपनो को सजाने वाला हमदर्द मिल जाएगा
कांटो भरे रास्ते पर चलने वाला हमसफ़र मिल जाएगा
दोस्ती हुई हमसफ़र और हमदर्द मिल
ना सोचा था कभी अब तन्हाई होगी ना अकेलापन होगा
मैने भी सोचा साल भर बसंत ही रहेगा
लेकिन प्रक्रित के चक्र की तरह बसंत आया और चला गया
मैने भी प्राकृत का विरोध कर के बस बसंत ही चाहा
लेकिन मैं शायद नादान था की प्राकृत किसी के मोह मे नही आती है
और दोस्त रूठा...
मुझे फिर पाथरीले और कांटो भरे रास्तों पर अकेला
छोड़ कर चल दिया...
जिसने कभी चलने की राह दिखाई,
जिसने कभी उंगली पकड़ के चलना सिखाया,
वही कहता है की तुम ग़लत रास्ते पे चले गये हो...
और मुझे फिर वही तन्हाई और काँटे भरे रास्ते मिले..
और मैं आज भी उस रास्ते पर खड़े होकर
उस दोस्त का इंतजार कर रहा हूँ...
दोस्त मिल गया तो मंज़िल तक पहुँचूगा
नही मेरे दोस्त के बिछड़ने की जगह ही मेरी मंज़िल होगी...
प्राकृत कहती है की बसंत फिर आएगा
और मैं उस बसंत रूपी दोस्त के इंतजार मे...