ऐ समाज के ठेकेदारो!!!
इंसानियत अभी जिंदा है
उसपे अभी कफ़न मत डालो
डालना है तो तेल दीपक मे डालो
तुम्हारे कालेपन से जो अंधेरा फैला है
वो शायद मिट जाए...
जलते हुए घरो को और मत जलाओ
जलाना ही है तो बुझे हुए चूल्हो को जलाओ
जहा से आज भी आती कराहती हुई आवाज़
उन घरो पे तुम्हारी नज़रे क्यो नही पहुँची
लेकिन दस्तूर ही कुछ ऐसा है की
तुम्हारी नज़रे ठहरती ही वाहा है
जहा सब कुछ बसा है...
क्योंकि बसाने से ज़्यादा तुम्हे उजाड़ने मे मज़ा आता है...
Is title ka main uddesh youa bharat ki awaj ko uthana hai,jisse aane wala bharat samridh aur khushhal bharat ho....
Saturday, December 18, 2010
Sunday, November 28, 2010
सोचो क्या होगा...
अगर साथ दीपक को तूफ़ानो का मिल जाए
अगर साथ खुद को गैरो का मिल जाए
अहसास ना होगा अंधेरे और पराएपन का
फिर रोशनी की रोशनी बुझ जाएगी
अपनो के ना होने का ऐहसास ना रह जाएगा
माँ की ममता का ऐहसास कहा होगा
फिर दीपक लड़ने की ललक खो देगा
हम अपनो को पाने की ज़िद छोड़ देंगे
फिर किस को पाने के लिए हम लड़ेंगे
किस अंधेरे को ख़तम करने के लिए दीप जलाएँगे
और ये कलम किस की तन्हाई और अंधेरे को को सादे कागज पे लिखेगी
सोचो हम कितने खाली हो जाएँगे...
अगर साथ खुद को गैरो का मिल जाए
अहसास ना होगा अंधेरे और पराएपन का
फिर रोशनी की रोशनी बुझ जाएगी
अपनो के ना होने का ऐहसास ना रह जाएगा
माँ की ममता का ऐहसास कहा होगा
फिर दीपक लड़ने की ललक खो देगा
हम अपनो को पाने की ज़िद छोड़ देंगे
फिर किस को पाने के लिए हम लड़ेंगे
किस अंधेरे को ख़तम करने के लिए दीप जलाएँगे
और ये कलम किस की तन्हाई और अंधेरे को को सादे कागज पे लिखेगी
सोचो हम कितने खाली हो जाएँगे...
Wednesday, November 24, 2010
गाँव की गलियाँ...
बचपन की यादों को समेटे हुए
मैं शहर की सड़को पर निकला
तब अचानक गाँव की गलिया याद आयी
जिन गलियों मे गाँव का प्यार बहता है...
सुना था शहर की गलिया गाँव की गलियों से अच्छी है
लेकिन मुझे इन गलियों मे केवल काँच की हवेली, ईटो के महल ही दिखे...
ना बुज़ुर्गो का प्यार था ना माँ का दुलार
फिर भी बनावटी सुंदरता को देखकर हम क्यों चले आये...
अब जाके ऐहसास हुआ की गाँव की मिट्टी के घराऊंदे ही अच्छे थे...
शहर की भीड़ से लड़ने से अच्छा गाँव के हालातों से लड़ना अच्छा है...
मैं शहर की सड़को पर निकला
तब अचानक गाँव की गलिया याद आयी
जिन गलियों मे गाँव का प्यार बहता है...
सुना था शहर की गलिया गाँव की गलियों से अच्छी है
लेकिन मुझे इन गलियों मे केवल काँच की हवेली, ईटो के महल ही दिखे...
ना बुज़ुर्गो का प्यार था ना माँ का दुलार
फिर भी बनावटी सुंदरता को देखकर हम क्यों चले आये...
अब जाके ऐहसास हुआ की गाँव की मिट्टी के घराऊंदे ही अच्छे थे...
शहर की भीड़ से लड़ने से अच्छा गाँव के हालातों से लड़ना अच्छा है...
Sunday, November 21, 2010
आधूरी दोस्ती...
दोस्ती चीज़ क्या है समझ मे नही आता
कभी तन्हाई दूर करने के लिए दोस्ती करते थे
आज दोस्ती कर के तन्हाई मे रहते है
सोचते थे कभी की दोस्ती करके
टूटे हुए सपनो को सजाने वाला हमदर्द मिल जाएगा
कांटो भरे रास्ते पर चलने वाला हमसफ़र मिल जाएगा
दोस्ती हुई हमसफ़र और हमदर्द मिल
ना सोचा था कभी अब तन्हाई होगी ना अकेलापन होगा
मैने भी सोचा साल भर बसंत ही रहेगा
लेकिन प्रक्रित के चक्र की तरह बसंत आया और चला गया
मैने भी प्राकृत का विरोध कर के बस बसंत ही चाहा
लेकिन मैं शायद नादान था की प्राकृत किसी के मोह मे नही आती है
और दोस्त रूठा...
मुझे फिर पाथरीले और कांटो भरे रास्तों पर अकेला
छोड़ कर चल दिया...
जिसने कभी चलने की राह दिखाई,
जिसने कभी उंगली पकड़ के चलना सिखाया,
वही कहता है की तुम ग़लत रास्ते पे चले गये हो...
और मुझे फिर वही तन्हाई और काँटे भरे रास्ते मिले..
और मैं आज भी उस रास्ते पर खड़े होकर
उस दोस्त का इंतजार कर रहा हूँ...
दोस्त मिल गया तो मंज़िल तक पहुँचूगा
नही मेरे दोस्त के बिछड़ने की जगह ही मेरी मंज़िल होगी...
प्राकृत कहती है की बसंत फिर आएगा
और मैं उस बसंत रूपी दोस्त के इंतजार मे...
कभी तन्हाई दूर करने के लिए दोस्ती करते थे
आज दोस्ती कर के तन्हाई मे रहते है
सोचते थे कभी की दोस्ती करके
टूटे हुए सपनो को सजाने वाला हमदर्द मिल जाएगा
कांटो भरे रास्ते पर चलने वाला हमसफ़र मिल जाएगा
दोस्ती हुई हमसफ़र और हमदर्द मिल
ना सोचा था कभी अब तन्हाई होगी ना अकेलापन होगा
मैने भी सोचा साल भर बसंत ही रहेगा
लेकिन प्रक्रित के चक्र की तरह बसंत आया और चला गया
मैने भी प्राकृत का विरोध कर के बस बसंत ही चाहा
लेकिन मैं शायद नादान था की प्राकृत किसी के मोह मे नही आती है
और दोस्त रूठा...
मुझे फिर पाथरीले और कांटो भरे रास्तों पर अकेला
छोड़ कर चल दिया...
जिसने कभी चलने की राह दिखाई,
जिसने कभी उंगली पकड़ के चलना सिखाया,
वही कहता है की तुम ग़लत रास्ते पे चले गये हो...
और मुझे फिर वही तन्हाई और काँटे भरे रास्ते मिले..
और मैं आज भी उस रास्ते पर खड़े होकर
उस दोस्त का इंतजार कर रहा हूँ...
दोस्त मिल गया तो मंज़िल तक पहुँचूगा
नही मेरे दोस्त के बिछड़ने की जगह ही मेरी मंज़िल होगी...
प्राकृत कहती है की बसंत फिर आएगा
और मैं उस बसंत रूपी दोस्त के इंतजार मे...
Monday, November 1, 2010
नेताओ की दीपावली...
आज के नेताओ के दीपावली मानने का अंदाज कुछ इस प्रकार हो गया है...
पहले भारत के पास बॉंम् नही था...
इसलिए लोग पटाखे खरीदते थे...
आज भारत खुद बॉंम् है...
तो पटाखे की क्या ज़रूरत है...
इसी बोम्म से खेलो
हम जैसे नेताओ की तरह...
लेकिन भारतीय संस्कृत के सम्मान के लिए
पहले आप पहले आप के अनुसार
हम लोग खेल नही पाएँगे
और हमारे नेता हर
बार ऐसी दीपावली मानते रहेंगे...
और हम हर बार भारतीय संस्कृत का सम्मान करते रहेंगे...
पहले भारत के पास बॉंम् नही था...
इसलिए लोग पटाखे खरीदते थे...
आज भारत खुद बॉंम् है...
तो पटाखे की क्या ज़रूरत है...
इसी बोम्म से खेलो
हम जैसे नेताओ की तरह...
लेकिन भारतीय संस्कृत के सम्मान के लिए
पहले आप पहले आप के अनुसार
हम लोग खेल नही पाएँगे
और हमारे नेता हर
बार ऐसी दीपावली मानते रहेंगे...
और हम हर बार भारतीय संस्कृत का सम्मान करते रहेंगे...
कॉमेंट करने का समय नही है...कुछ करने का समय है..
जितने लोग आज नेताओ के उपर कॉमेंट कर रहे है सबसे एक चीज़ पूंछ रहा हू.. कि आप लोग राजनीत मे क्यो नही गये...जब पढ़ रहे थे तो आपने सोचा था की मैं आई ए यस , डॉक्टर, इंजिनियर, मॅनेजर बनूंगा...और आप लोगो ने अपने मन के हिसाब से अपने रास्ते पर चल निकले...और किसी ने राजनीत के बारे मे नही सोचा की भारत को कंधा कौन देगा...तो राजनीत मे उन लोगो ने ही अपना क्ररीयर बनाया जो आपकी तरह डॉक्टर, इंजिनियर नही बन पाए..इसका मतलब वो आप से ज़्यादा बुध्हिमान नही है...तो फिर आप उनसे अपेक्षा क्यो करते है की वो आप से अच्छा काम करेंगे..आप स्वतन्त्र है इसलिए कॉमेंट करिए लेकिन उनसे कुछ अपेक्षा मत करिए..और कुछ करना है..तो कॉमेंट करना बंद करके आगे आइए कमजोर भारत आपके कंधो का इंतजार कर रहा है..जय हिंद..
Sunday, October 31, 2010
दीपावली...
दीप जलाना ऐसे की किसी के अरमान ना जलने पाएँ...
इस फैले हुए अंधेरे मे खुद को जला कर किसी के अरमान को प्रकाश देना..
जिससे आने वाला भारत अंधेरे मे ना पैदा हो...
खुद को इतना जलाना की रोशनी उन घरो मे भी हो...
जिन घरों की दीवारें ही अंधेरो से बनी हुई लगती है...
दीपक की रोशनी इतनी हो की सूरज समझकर, उठ जाए सोए हुए..
इस फैले हुए अंधेरे मे खुद को जला कर किसी के अरमान को प्रकाश देना..
जिससे आने वाला भारत अंधेरे मे ना पैदा हो...
खुद को इतना जलाना की रोशनी उन घरो मे भी हो...
जिन घरों की दीवारें ही अंधेरो से बनी हुई लगती है...
दीपक की रोशनी इतनी हो की सूरज समझकर, उठ जाए सोए हुए..
Saturday, October 30, 2010
भारतीय नारी...
नारियाँ कभी बहन बनकर भाई का साथ देती हैं...
नारियाँ कभी पत्नी के रूप मे पति का साथ देती हैं...
नारियाँ कभी माँ के रूप मे एक बेटे को पालती है...
जितना त्याग एक बहन भाई के लिए,
जितना त्याग एक पत्नी पति के लिए
जितना त्याग एक माँ बेटे के लिए करती है.
अगर इतना ही त्याग एक भाई अपने बहन के लिए
अगर इतना ही त्याग एक पति अपने पत्नी के लिए
अगर इतना ही त्याग एक बेटा अपने माँ के लिए कर दे...
तो अगले दिन की सुबह...
स्वर्ग धरती पर होगा...
नारियाँ कभी पत्नी के रूप मे पति का साथ देती हैं...
नारियाँ कभी माँ के रूप मे एक बेटे को पालती है...
जितना त्याग एक बहन भाई के लिए,
जितना त्याग एक पत्नी पति के लिए
जितना त्याग एक माँ बेटे के लिए करती है.
अगर इतना ही त्याग एक भाई अपने बहन के लिए
अगर इतना ही त्याग एक पति अपने पत्नी के लिए
अगर इतना ही त्याग एक बेटा अपने माँ के लिए कर दे...
तो अगले दिन की सुबह...
स्वर्ग धरती पर होगा...
Friday, October 29, 2010
समाज..समाज...
जब दर्द को बटना चाहा और ही दर्द पाया है,
जब किसी को अपना समझा है तो अपने को हर मोड़ पे अकेला ही पाया है,
जब तक समाज को नही जनता था तब यही सोचता था कुछ अच्छी चीज़ होगी,
लेकिन जब से समाज को समझा हूँ, अपने को और भी अकेला पाया है,
समाज से पूछता हूँ,
समाज को दर्द बाँटने से ज़्यादा
दर्द देने का हक़ किसने दिया है
समाज को दर्द होता है
जब कोई बढ़ता है...
समाज को दर्द होता है
जब कोई आगे निकलता है...
लेकिन समाज को दर्द तब क्यो नही होता है
जब रात को बच्चा अपनी माँ से खाना माँगता है
माँगते-२ बच्चा सो जाता है
तब समाज एक गहरी नींद मे सो रहा होता है...
लेकिन वही माँ जब अपने बच्चे को भूखा सोते देखकर
जब कुछ करती है तो समाज की गहरी नींद टूट जाती है...
वही बच्चा जब बड़ा होता है
और समाज से जबाब माँगता है
तो समाज उसे पागल घोषित कर देता है
यही समाज की सच्चाई है...
समाज मे रहना है
तो एक माँ को अपने बच्चे को भूखा देखकर चुप रहना होगा...
समाज के सामने माँ की ममता को घुटनो के बल चलना होगा..
समाज समाज...
जब किसी को अपना समझा है तो अपने को हर मोड़ पे अकेला ही पाया है,
जब तक समाज को नही जनता था तब यही सोचता था कुछ अच्छी चीज़ होगी,
लेकिन जब से समाज को समझा हूँ, अपने को और भी अकेला पाया है,
समाज से पूछता हूँ,
समाज को दर्द बाँटने से ज़्यादा
दर्द देने का हक़ किसने दिया है
समाज को दर्द होता है
जब कोई बढ़ता है...
समाज को दर्द होता है
जब कोई आगे निकलता है...
लेकिन समाज को दर्द तब क्यो नही होता है
जब रात को बच्चा अपनी माँ से खाना माँगता है
माँगते-२ बच्चा सो जाता है
तब समाज एक गहरी नींद मे सो रहा होता है...
लेकिन वही माँ जब अपने बच्चे को भूखा सोते देखकर
जब कुछ करती है तो समाज की गहरी नींद टूट जाती है...
वही बच्चा जब बड़ा होता है
और समाज से जबाब माँगता है
तो समाज उसे पागल घोषित कर देता है
यही समाज की सच्चाई है...
समाज मे रहना है
तो एक माँ को अपने बच्चे को भूखा देखकर चुप रहना होगा...
समाज के सामने माँ की ममता को घुटनो के बल चलना होगा..
समाज समाज...
Thursday, October 28, 2010
दो मिनट...
आज भारत की चाहे कहे दशा या दुर्दशा देखकर हर भारतीय के ज़बान पे कुछ ना कुछ आता है लेकिन वो दूसरो के खिलाफ ही आता है...अगर ऐसा होता है तो होना नही चाहिए क्योंकि हमारी भी नैतिक ज़िम्मेदारी बनती है भारत की दशा या दुर्दशा सुधारने की,किसी के उपर आरोप-प्रत्यारोप करके भारत की दशा को सुधरा नही जा सकता है...आज हम लोगो की दशा ये हो गयी की हम आज़ाद भारत मे आज़ादी खोज रहे है...दो मिनिट अपने देश के लिए सोंचो...इतिहास के पन्नो मे सीमटते हुए भारत को बचाने के लिए आगे बड़े और एक नया इतिहास लिखे...
Tuesday, September 21, 2010
सच्चे भगवान...
जब पूजा राम और कृष्णा की होती है तो भगत और सुभाष की क्यो नही ?
आज ये प्रश्न हमारे मश्तिश्क मे क्यो नही उठता की जब हम अपने घरो मे राम और कृष्ण की तस्वीर को लगा के उनकी पूजा कर सकते है तो भगत और सुभाष की क्यो नही करते? हम सुभाष और भगत को स्वतंत्रता दिवस या उनकी पुण्यतिथि पर ही याद करते है ऐसा क्यो है? क्या हमारे पास उनके लिए समय नही है ? क्या उन्होने राक्षसो का वध नही किया था? क्या उन्होने इंसानियत की एक मिशल नही पेश की थी? क्या उन्होने हमे एक सुरशित समाज नही दिया ? अगर आज हम अपने नियम क़ानून बनाते है तो ये किसकी देंन है? क्या उन्होने कभी धर्म के बारे मे सोचा था की हम हिंदू , मुसलमान ,सिख ,या ईसाई है?
आज हम अपने धर्म के भगवान के लिए लिए लड़ते है की मंदिर बनेगा या मस्जिद बनेगा लेकिन हम उस भगवान के लिए क्यो नही लड़ते है जिन्होने इंसानियत धर्म को पैदा किया , जिन्होने इंसानियत धर्म के लिए अपना सब कुछ हवन कर दिया , जिन्होने एक धर्म चलाया जिसमे हर धर्म के लोग खुशी से रहते थे और एक ही धर्म के लिए अपना सब कुछ हवन कर के आने वाले कल के लिए एक नयी मिशाल बने क्यो नही हम एक ऐसे घर का निर्माण करते है जिसमे हर मज़हब के लोग आकर एक ही धर्म को माने और वो हो एक ही भगवान की पूजा करे..
अगर राम ने एक रावन को मारा कृष्णा ने एक कन्श को मारा तो भगत और सुभाष ने कितने रावन और कन्स मारे, क्यों नही हम राम और कृष्ण की तरह सुभाष,भगत और अब्दुल हमीद की पूजा करते, क्या इसीलिए की उन्होने कोई नया धर्म नही बनाया और किसी नये धर्म के प्रवर्तक नही हुए...
आज ये प्रश्न हमारे मश्तिश्क मे क्यो नही उठता की जब हम अपने घरो मे राम और कृष्ण की तस्वीर को लगा के उनकी पूजा कर सकते है तो भगत और सुभाष की क्यो नही करते? हम सुभाष और भगत को स्वतंत्रता दिवस या उनकी पुण्यतिथि पर ही याद करते है ऐसा क्यो है? क्या हमारे पास उनके लिए समय नही है ? क्या उन्होने राक्षसो का वध नही किया था? क्या उन्होने इंसानियत की एक मिशल नही पेश की थी? क्या उन्होने हमे एक सुरशित समाज नही दिया ? अगर आज हम अपने नियम क़ानून बनाते है तो ये किसकी देंन है? क्या उन्होने कभी धर्म के बारे मे सोचा था की हम हिंदू , मुसलमान ,सिख ,या ईसाई है?
आज हम अपने धर्म के भगवान के लिए लिए लड़ते है की मंदिर बनेगा या मस्जिद बनेगा लेकिन हम उस भगवान के लिए क्यो नही लड़ते है जिन्होने इंसानियत धर्म को पैदा किया , जिन्होने इंसानियत धर्म के लिए अपना सब कुछ हवन कर दिया , जिन्होने एक धर्म चलाया जिसमे हर धर्म के लोग खुशी से रहते थे और एक ही धर्म के लिए अपना सब कुछ हवन कर के आने वाले कल के लिए एक नयी मिशाल बने क्यो नही हम एक ऐसे घर का निर्माण करते है जिसमे हर मज़हब के लोग आकर एक ही धर्म को माने और वो हो एक ही भगवान की पूजा करे..
अगर राम ने एक रावन को मारा कृष्णा ने एक कन्श को मारा तो भगत और सुभाष ने कितने रावन और कन्स मारे, क्यों नही हम राम और कृष्ण की तरह सुभाष,भगत और अब्दुल हमीद की पूजा करते, क्या इसीलिए की उन्होने कोई नया धर्म नही बनाया और किसी नये धर्म के प्रवर्तक नही हुए...
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