Sunday, November 28, 2010

सोचो क्या होगा...

अगर साथ दीपक को तूफ़ानो का मिल जाए
अगर साथ खुद को गैरो का मिल जाए
अहसास ना होगा अंधेरे और पराएपन का
फिर रोशनी की रोशनी बुझ जाएगी
अपनो के ना होने का ऐहसास ना रह जाएगा
माँ की ममता का ऐहसास कहा होगा
फिर दीपक लड़ने की ललक खो देगा
हम अपनो को पाने की ज़िद छोड़ देंगे
फिर किस को पाने के लिए हम लड़ेंगे
किस अंधेरे को ख़तम करने के लिए दीप जलाएँगे
और ये कलम किस की तन्हाई और अंधेरे को को सादे कागज पे लिखेगी
सोचो हम कितने खाली हो जाएँगे...

Wednesday, November 24, 2010

गाँव की गलियाँ...

बचपन की यादों को समेटे हुए
मैं शहर की सड़को पर निकला
तब अचानक गाँव की गलिया याद आयी
जिन गलियों मे गाँव का प्यार बहता है...
सुना था शहर की गलिया गाँव की गलियों से अच्छी है
लेकिन मुझे इन गलियों मे केवल काँच की हवेली, ईटो के महल ही दिखे...
ना बुज़ुर्गो का प्यार था ना माँ का दुलार
फिर भी बनावटी सुंदरता को देखकर हम क्यों चले आये...
अब जाके ऐहसास हुआ की गाँव की मिट्टी के घराऊंदे ही अच्छे थे...
शहर की भीड़ से लड़ने से अच्छा गाँव के हालातों से लड़ना अच्छा है...

Sunday, November 21, 2010

आधूरी दोस्ती...

दोस्ती चीज़ क्या है समझ मे नही आता
कभी तन्हाई दूर करने के लिए दोस्ती करते थे
आज दोस्ती कर के तन्हाई मे रहते है
सोचते थे कभी की दोस्ती करके
टूटे हुए सपनो को सजाने वाला हमदर्द मिल जाएगा
कांटो भरे रास्ते पर चलने वाला हमसफ़र मिल जाएगा
दोस्ती हुई हमसफ़र और हमदर्द मिल
ना सोचा था कभी अब तन्हाई होगी ना अकेलापन होगा
मैने भी सोचा साल भर बसंत ही रहेगा
लेकिन प्रक्रित के चक्र की तरह बसंत आया और चला गया
मैने भी प्राकृत का विरोध कर के बस बसंत ही चाहा
लेकिन मैं शायद नादान था की प्राकृत किसी के मोह मे नही आती है
और दोस्त रूठा...
मुझे फिर पाथरीले और कांटो भरे रास्तों पर अकेला
छोड़ कर चल दिया...
जिसने कभी चलने की राह दिखाई,
जिसने कभी उंगली पकड़ के चलना सिखाया,
वही कहता है की तुम ग़लत रास्ते पे चले गये हो...
और मुझे फिर वही तन्हाई और काँटे भरे रास्ते मिले..
और मैं आज भी उस रास्ते पर खड़े होकर
उस दोस्त का इंतजार कर रहा हूँ...
दोस्त मिल गया तो मंज़िल तक पहुँचूगा
नही मेरे दोस्त के बिछड़ने की जगह ही मेरी मंज़िल होगी...
प्राकृत कहती है की बसंत फिर आएगा
और मैं उस बसंत रूपी दोस्त के इंतजार मे...

Monday, November 1, 2010

नेताओ की दीपावली...

आज के नेताओ के दीपावली मानने का अंदाज कुछ इस प्रकार हो गया है...
पहले भारत के पास बॉंम् नही था...
इसलिए लोग पटाखे खरीदते थे...
आज भारत खुद बॉंम् है...
तो पटाखे की क्या ज़रूरत है...
इसी बोम्म से खेलो
हम जैसे नेताओ की तरह...
लेकिन भारतीय संस्कृत के सम्मान के लिए
पहले आप पहले आप के अनुसार
हम लोग खेल नही पाएँगे
और हमारे नेता हर
बार ऐसी दीपावली मानते रहेंगे...
और हम हर बार भारतीय संस्कृत का सम्मान करते रहेंगे...

कॉमेंट करने का समय नही है...कुछ करने का समय है..

जितने लोग आज नेताओ के उपर कॉमेंट कर रहे है सबसे एक चीज़ पूंछ रहा हू.. कि आप लोग राजनीत मे क्यो नही गये...जब पढ़ रहे थे तो आपने सोचा था की मैं आई ए यस , डॉक्टर, इंजिनियर, मॅनेजर बनूंगा...और आप लोगो ने अपने मन के हिसाब से अपने रास्ते पर चल निकले...और किसी ने राजनीत के बारे मे नही सोचा की भारत को कंधा कौन देगा...तो राजनीत मे उन लोगो ने ही अपना क्ररीयर बनाया जो आपकी तरह डॉक्टर, इंजिनियर नही बन पाए..इसका मतलब वो आप से ज़्यादा बुध्हिमान नही है...तो फिर आप उनसे अपेक्षा क्यो करते है की वो आप से अच्छा काम करेंगे..आप स्वतन्त्र है इसलिए कॉमेंट करिए लेकिन उनसे कुछ अपेक्षा मत करिए..और कुछ करना है..तो कॉमेंट करना बंद करके आगे आइए कमजोर भारत आपके कंधो का इंतजार कर रहा है..जय हिंद..