Friday, October 29, 2010

समाज..समाज...

जब दर्द को बटना चाहा और ही दर्द पाया है,
जब किसी को अपना समझा है तो अपने को हर मोड़ पे अकेला ही पाया है,
जब तक समाज को नही जनता था तब यही सोचता था कुछ अच्छी चीज़ होगी,
लेकिन जब से समाज को समझा हूँ, अपने को और भी अकेला पाया है,
समाज से पूछता हूँ,
समाज को दर्द बाँटने से ज़्यादा
दर्द देने का हक़ किसने दिया है
समाज को दर्द होता है
जब कोई बढ़ता है...
समाज को दर्द होता है
जब कोई आगे निकलता है...
लेकिन समाज को दर्द तब क्यो नही होता है
जब रात को बच्चा अपनी माँ से खाना माँगता है
माँगते-२ बच्चा सो जाता है
तब समाज एक गहरी नींद मे सो रहा होता है...
लेकिन वही माँ जब अपने बच्चे को भूखा सोते देखकर
जब कुछ करती है तो समाज की गहरी नींद टूट जाती है...
वही बच्चा जब बड़ा होता है
और समाज से जबाब माँगता है
तो समाज उसे पागल घोषित कर देता है
यही समाज की सच्चाई है...
समाज मे रहना है
तो एक माँ को अपने बच्चे को भूखा देखकर चुप रहना होगा...
समाज के सामने माँ की ममता को घुटनो के बल चलना होगा..
समाज समाज...

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